मुझसे मेरी ही लड़ाई हैं,
चेतना ने मन को पुकार लगाई हैं,
मुझसे मेरी ही लड़ाई हैं।
बह कहती हैं मन से तू करों भाग रहा इधर उधर,
देख इधर मेरी तरफ मुझमें ही तो ईश्वरयता समाई हैं।
तू आकर्षित हैं बाह्य चकार्चोंध की तरफ,
क्या तब भी तुझे संतुष्टि मिल पाई हैं।
कुछ क्षणों के लिए तू पा जाता हैं जो सुख
क्या यह असीम शांति की भरपाई हैं।
चेतना ने मन को पुकार लगाई हैँ,
मुझसे मेरी ही लड़ाई हैं.................
-- रंगोली अवस्थी
पुस्तकालय सूचना अधिकारी
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