आशा की उड़ान
पंख मिले पर आसमान न मिला,
लेकिन पंख का हौसला न हिला।
सिमटा रहा एक पिंजरे में तन,
तब भी मेरा विश्वास न हिला।
आशा की उड़ान मन रोज उड़ता रहा,
ख्वाबों को वह रोज बुनता रहा।
विश्वास था एक दिन मेरा भी समय आएगा,
कंस के कारागार की तरह पिंजरा मेरा खुल जाएगा।
फिर एक दिन कान्हा ने मुझे सुना,
और एक बार पिंजरा मेरा खुला।
संभावनाओं का आसमान था अपार,
और मैं उड़ने के लिए तैयार।
पहले ख्वाबों के फूल थे, अब यथार्थ के कांटे हैं,
अस्तित्व की पहचान को मेरे मुझसे ही वादे हैं।
और अब कहने को तैयार हूं कि
पंख मिले, आसमान भी मिला और
मेरी कल्पना को सम्मान भी मिला।
-- रंगोली अवस्थी
पुस्तकालय सूचना अधिकारी
पी.के.केलकर, आईआईटी
कानपुर
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